दिवाली पर आतिशबाजी करना सही, पटाखों और आतिशबाजी का है हमारे प्राचीन ग्रंथो में वर्णन

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पटाखों और आतिशबाजी का हमारे प्राचीन ग्रंथो में वर्णन.

भारत में किसी भी धार्मिक या सामाजिक आयोजन पर पटाखे फोड़ना या आतिशबाजी करना आधुनिक काल की देन है ऐसा लोग मानते हैं. कहा जा रहा है कि, इसका किसी शास्त्र में उल्लेख नहीं है. यह शोर हिन्दू त्योहारों के समय तो बहुत बड़ा बवाल बनकर आता है. आज के इस डिजिटल युग में यह बवाल कई बार विवादों को जन्म देता है. इसी विवाद के बीच जहां एक पक्ष अपनी पुरातन पंरपराओं का हवाला देते हुए पटाखे फोड़ने का पक्षधर होता है, वहीं दूसरा पक्ष यह कहते हुए पाया जाता है कि ऐसी कोई परंपरा हिन्दू शास्त्रों में वर्णित नहीं है.

इस लेख में यही पता लगाने का प्रयास किया गया है कि पटाखों और आतिशबाजी का हमारे प्राचीन शास्त्रों में उल्लेख है अथवा नहीं. आनन्द रामायण में इसका वर्णन मिलता है कि, जब श्रीराम मिथिला से अयोध्या लौटे थे तो उस समय आतिशबाजी की गई थी. हम उस समय की प्रचलित प्रथा को मिथ्या साबित नही कर सकते, जो पता नहीं कब से चली आ रही होगी?  हमारे ग्रंथो में इसका उल्लेख मिलना स्वतः प्रमाणित कर रहा है कि यह परम्परा प्राचीन है.

आज 12 नवंबर को दिवाली का पर्व है और अब आधुनिक सामाज के ठेकेदार हमें सीख देने लगेंगे की आतिशबाजी क्यों नहीं करनी चाहिए. कैसी विडंबना है कि आपके घरों और कार्यालयों में दिनरात एयरकंडीशनर घरघरा कर कई टन “सी एफ सी” छोड़कर वातावरण को प्रदूषित करत रहें हैं, प्रदूषण फैला रहा हैं, तब ज्ञान कहां चला जाता है?  बड़े जेट विमान और SUV गाड़ियां जहरीला धुंआ कार्बन छोड़ती हैं तब प्रदूषण की चिंता नही होती है?  विवाह शादीयों में पटाखे नहीं फोड़े जाते?

हमारे सर्वोच्च न्यायालय में इसी प्रदूषण को लेकर एक याचिका में पटाखों पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात पर, न्यायमूर्ति ने याचिकाकर्ता से कहा कि पूर्ण रोक का अर्थ होगा, अर्थव्यवस्था पर भार तथा कई लोगों के रोजगार नष्ट होंगे तथा उनके अधिकृत लाइसेंस भी बेकार हो जाएंगे. यह भी कहा कि पटाखों से अधिक प्रदूषण तो मोटर कारें पैदा करती हैं, लेकिन कोई भी तथाकथित बुद्धिजीवी उस पर कभी नहीं बोलता क्योंकि उसे अपनी सुविधा ज्यादा प्यारी है. केवल दिवाली में शोर करना है ताकि सनातन संस्कृति नष्ट हो.

बड़े–बड़े सुपरसोनिक विमान के प्रदूषण के फलस्वरूप वायुमण्डल की ओज़ोन पर्त पतली हो रही है. दीवाली इत्यादि त्योहार वर्ष में एक बार आता है. लेकिन प्रदूषण रोज फैलाने का काम हम सभी करते हैं. इसलिए आदर्शवादी बातें बन्द करें. हम सब भी जागरूक नागरिक हैं, कब और कहां रुकना है, हमें पता है. सभ्य समाज के लोग यह कहते हैं कि हिन्दू ग्रंथों में तो पटाखों के विषय में कोई उल्लेख नहीं है, तो मैं प्रमाण के तौर पर कुछ शास्त्रों के उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूं.

आनंद रामायण 3.302–303 में श्रीराम के विवाह के समय की आतिशबाजी का उल्लेख है. श्लोक है:—

ततस्ते वारणेद्रस्थादिव्य चामरदुजिताः। श्रृण्वतो वाद्यघोषांश्र्च वर्षितापुष्पवृष्टिभिः। हरिद्रांकितधान्यैश्र्च मांगल्यैमौक्तिकादिभिः।मातृभार्वाणास्त्रिप् संस्थिताभिमुर्हुमुर्हुः। एवं ते राघवाद्याश्र्च पुरस्त्रीभिनिरोक्षितः।

प्रासादोपरि संस्थामिर्लाजभिर्वाषाता मुहुः।दद्दशुर्नर्तनान्यग्ने वारस्त्रिणा स्मितानानः। वाटिकाः पुष्पवृक्षाणां वरमृत्यात्रनिर्मिताः।तथा कृत्रिमवृक्षांश्र्च पताकाश्र्च ध्वगजास्थता। बहिषसंगोदोषधिनां

पुष्पवृक्षविर्मितां।तडितभोतप्रभोतमांश्र्चापि गगनांतबिंराजितां। बह्रिसंज्ञादोपधिभ्यः।प्रकारान् विविधान् वरान्। चंद्रज्योत्स्नाकृत्रिमांश्र्च दीपवृक्षान् सहस्त्राश्र्च।दीपमालाश्र्च व्यिध्रादिन्कृत्रिमान् रथसंस्थितान्। ओषधिभिःपूरितांश्र केकोचक्रोपमादिकान् दद्दशुर्बाणेद्रस्था एवं ते राघवादयः।।

इस श्लोक में कहा गया है मिट्टी के गमलों की फूल पत्तियों के साथ ही एक कोई वस्तु जो अग्नि से जलाने पर वह आकाश में जाकर बिजली की तरह कौंध जाती है और चमकने के साथ-साथ रोशनी भी पैदा करती है, जो विभिन्न प्रकार के कृत्रिम फूल पौधे बना देती है और चंद्रमा की चांदनी की तरह मोर आदि बना देती है, उसे सभी बड़ी कौतूहल पूर्वक देखते हैं. इस वर्णन को आतिशबाजी नहीं बोलेंगे तो क्या बोलेंगे? आज आतिशबाजी से ऐसी अनेक कलाबाजियां होती है.

छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ गुरु रामदास ने रामदास साहित्य, युद्धकाण्ड 13.32 में लिखा है कि भगवान राम के लौटने पर अयोध्या में उनके स्वागत में आतिशबाजी की गई थी.

“निशी प्राप्त जाली असंभाव्य दाटी। बह दिवट्या लक्ष कोट्यानुकोटी। यकितीएक ते उंच नेले उमाळे।नले जालितां घोष तैसे उफाळे।।32।।।”

अब क्या आज के ये तथाकथित बुद्धिजीवी समर्थ गुरु रामदास को भी नकार देंगे?

अर्थशास्त्र पुस्तक 2 अध्याय 3 में कौटिल्य ने कहा है:

“कार्याः कार्मारिकाश्शूला वेधनाग्राश्च वेणवः ।
उष्ट्रग्रीव्योऽग्निसंयोगाः कुप्यकल्पे च योऽवधिः ॥
यहां ’ऽग्निसंयोगाः’ का अर्थ है विस्फोट करनेवाला।

अब थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि शास्त्रो में इसका कहीं उल्लेख नहीं है, पर मनुस्मृति कहती है जो पुरानी मान्यताएं हमें संतोष देती हैं, उन अच्छी चीज़ों को चलने देना चाहिए.

आचार्य मेधातिथि भी यही बात लिखते हैं, अगर मान्यता सर्वमान्य और अच्छी है और उसे करनेवाला व्यक्ति शास्त्रों का जानकार है , हमें भी आत्म संतुष्टि होती है, तब उन परंपराओं को जारी रहना चाहिए.

वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च लं॥ 6 ॥(2.6)

मेदातिथि मनुस्मृति 2.6 भाष्य के अनुसार कहा गया है कि’ जहां तक परंपराओं का प्रश्न है जहां कुछ किया जा रहा है और जिसके परिणाम की जानकारी नहीं है और उसे करने वाले वेद के जानकार हैं, उसका आधिकारिक चरित्र स्मृति जैसा ही है, क्योंकि उसके पीछे वेदों की भी नींव है. गलत परंपराएं लोभ जनित हैं. अशिक्षित इसके जाल में फंस जाते हैं.

बाकी अन्य साक्ष्य हमारे पुराने भीती चित्र और अन्य कलाएं भी दीवाली के समय पटाखे दिखाते हैं. इसलिए यह दलील बिल्कुल गलत है कि पटाखे उन्नीसवीं सदी की देन हैं. आप एक दिन के तथाकथित प्रदूषण का शोर मचाते हैं तो अपने वातानुकूलित घर, कार और विमान के प्रदूषण की तुलना एक दिन की दीवाली से करते हैं तो क्या यह ठीक है?

उपरोक्त शास्त्रोक्त प्रमाण पर्याप्त हैं कि त्योहारों के समय पटाखे फोड़ना या आतिशबाजी करना पुरातन समय से चला रहा है.

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[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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